• पूरी दाल ही काली है

    2024 के आम चुनाव में पारदर्शिता और निष्पक्षता को लेकर पहले से ही कई सवाल खड़े हो रहे थे और अब चुनाव आयुक्त अरुण गोयल के अचानक हुए इस्तीफे ने इन चुनावों पर संदेह की कालिमा को कुछ और गाढ़ा कर दिया है।

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    2024 के आम चुनाव में पारदर्शिता और निष्पक्षता को लेकर पहले से ही कई सवाल खड़े हो रहे थे और अब चुनाव आयुक्त अरुण गोयल के अचानक हुए इस्तीफे ने इन चुनावों पर संदेह की कालिमा को कुछ और गाढ़ा कर दिया है। भारत के लोकतंत्र की मजबूती में पारदर्शी तरीके से हुए चुनावों की अहम भूमिका रही है। चुनाव में जीत के लिए राजनैतिक दल कई तरह की तिकड़मों को आजमाते हैं, मतदाताओं को लुभाने के लिए भ्रष्ट तरीके अपनाए जाते हैं। मतदान केंद्रों पर गुंडागर्दी, मतदाता सूची में फर्जी नामों को जोड़ना, मतदाताओं को धमकाना, अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदंवियों पर अनेक तरह के हमले करना, शराब या उपहारों के बदले मतों को खरीदने की कोशिश करना, सत्ता के लिए पाला बदल लेना, ऐसी बुराइयों की एक लंबी सूची है, जो चुनाव के वक्त खुलकर दिखाई देती हैं। ऐसा नहीं है कि इन बुराइयों का जन्म हाल-फिलहाल में हुआ है, बल्कि शुरुआत से ही राजनैतिक दल सत्ता में आने के लिए बेईमानी तरीकों से परहेज नहीं करते, लेकिन इसके बावजूद भारत में लोकतंत्र की साख बची रही तो इसका एक बड़ा कारण हमारी मजबूत संवैधानिक संस्थाएं थीं। यहां 'हैं' कि जगह 'थीं' का इस्तेमाल इसलिए करना पड़ रहा है, क्योंकि अब संवैधानिक व्यवस्था को मजबूत करने के नाम पर बनी इन संस्थाओं की उपयोगिता संदिग्ध हो चुकी है। राजनैतिक दल चाहे जितने भ्रष्ट तरीके अपनाते रहें, निर्वाचन आयोग ने उन पर अंकुश लगाने का काम हमेशा किया। आचार संहिता, चुनाव में खर्च, निष्पक्ष मतदान इन सब का ख्याल निर्वाचन आयोग रखता था। इनमें कुछ गड़बड़ियां हुईं भी तो विपक्ष की शिकायत को पूरी जगह दी गई। सत्ता का खुलकर साथ देने का दुस्साहस नहीं किया गया।


    लेकिन अब हालात पूरी तरह बदल चुके हैं। अब न्यायपालिका से लेकर जांच एजेंसियों और संवैधानिक संस्थाओं तक किसी की निष्पक्षता कायम नहीं रही है। कोलकाता हाईकोर्ट से इस्तीफा देकर भाजपा के साथ जाने वाले अभिजीत गंगोपाध्याय से जब एक साक्षात्कार में पूछा गया कि गांधी या गोडसे में से किसे चुनेंगे, तो पूर्व जस्टिस इसका कोई जवाब देने की जगह गहरी सांस लेकर सोचते दिखे। यह उदाहरण समझने के लिए काफी है कि हमारा लोकतंत्र किस दुर्दशा को प्राप्त हो चुका है, जहां संविधान की रक्षा की जिम्मेदारी निभाने वाले शख्स को राष्ट्रपिता या उनके हत्यारे में किसी एक का चुनाव करना मुश्किल हो गया है। इसके बाद यह सवाल उठेगा ही कि न्याय की आसंदी पर बैठकर जो फैसले उन्होंने लिए क्या वो निष्पक्ष थे, या तब भी एक राजनैतिक दल की विचारधारा से प्रेरित होकर काम किया जा रहा था। यही सवाल अब अरुण गोयल के इस्तीफे के बाद भी उठ रहे हैं। क्योंकि एक ओर इस्तीफे के पीछे निजी कारणों का हवाला दिया जा रहा है, दूसरी ओर चर्चा हो रही है कि श्री गोयल राजनीति में आना चाहते हैं और चुनाव लड़ने के लिए उन्होंने इस्तीफा दिया है। इस कारण की कोई पुष्टि अभी नहीं हुई है, लेकिन अगर इसमें जरा भी सच्चाई है तो यह बेहद गंभीर बात है।


    बतौर चुनाव आयुक्त अरुण गोयल का कार्यकाल साल 2027 तक था और अभी तीन साल उन्हें इस पद पर रहना था। उनकी नियुक्ति भी बड़े संदिग्ध तरीके से हुई थी। पंजाब कैडर के आईएएस रहे अरुण गोयल ने 31 दिसंबर 2022 को सेवानिवृत्त होने वाले थे, लेकिन उन्होंने 18 नवंबर 2022 को स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली थी। और फिर तीन दिन बाद 21 नवंबर 2022 को वे चुनाव आयुक्त बनाए गए। उनकी इस तरह नियुक्ति पर भी सवाल उठे थे और अब इस्तीफे पर भी सवाल उठ रहे हैं। मौजूदा मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार की सेवानिवृत्ति के बाद अगले साल फरवरी में अरुण गोयल मुख्य निर्वाचन आयुक्त बन सकते थे। लेकिन उन्होंने अभी ही आनन-फानन में इस्तीफा राष्ट्रपति को भेजा, जिसे मंजूर भी कर लिया गया है। चुनाव की तैयारियों के लिए चुनाव आयोग की टीम अलग-अलग राज्यों का दौरा कर रही थी और अभी अरुण गोयल इस टीम के साथ पश्चिम बंगाल में दो दिवसीय दौरे पर थे। लेकिन आयोग ने इसके बाद जो प्रेस वार्ता की, उसमें वे शामिल नहीं हुए थे। तभी से ये कयास भी लग रहे थे कि या तो अरुण गोयल और राजीव कुमार के बीच कोई मतभेद है, या फिर ईवीएम पर उठते सवाल और चुनाव के लिए तय किए जा रहे चरणों को लेकर वे सहज नहीं थे। सरकार से किसी न किसी किस्म की असहमति उनकी थी और इस वजह से दबाव में आकर उन्होंने इस्तीफा दिया।


    अरुण कुमार के इस्तीफे का सही कारण क्या है, इसका खुलासा उन्हें खुद ही फौरन कर देना चाहिए, अन्यथा सवालों और कयासों की सूची बढ़ती जाएगी। संदेह का यह कुहासा लोकतंत्र के लिए बिल्कुल अच्छा नहीं होगा। जनता अब भी यही मानती है कि वो अपने मताधिकार का इस्तेमाल कर जिन लोगों को वोट डालकर आती है, उन्हीं में से बहुमत प्राप्त उम्मीदवार को विजेता माना जाता है। इस तरह जनता अपने पसंदीदा उम्मीदवार की जीत में अपनी जीत मानती है। लेकिन अगर पर्दे के पीछे कोई अलग खेल चल रहा हो, तो इसमें जनता को पता भी नहीं चलेगा कि वह कितनी चालाकी से ठगी गई है। ठगी का यह खेल तभी रुकेगा, जब संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता बरकरार रहेगी और सरकार के दबाव से मुक्त रहेगी।


    फिलहाल अरुण कुमार के इस्तीफे के बाद अब निर्वाचन आयोग में मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ही शेष हैं। कायदे से वे अकेले भी लोकसभा चुनाव की घोषणा करने में सक्षम हैं। संविधान का अनुच्छेद 324 चुनाव आयोग के एकल सदस्य के प्रदर्शन यानी कार्य करने की अनुमति देता है। लेकिन इसमें पहले की तरह तीन सदस्य रहें तो जांच और संतुलन की गुंजाइश बरकरार रहती है। इसमें किसी को मन की बात करने की खुली छूट नहीं होती। सरकार ने पहले ही अपनी मर्जी के चुनाव आयुक्त को रखने का नियम बना लिया था। अरुण कुमार गोयल के इस्तीफे के बाद इस मनमानी के और बढ़ने की आशंका है। निष्पक्ष चुनाव की दाल में कुछ काला नहीं है, पूरी दाल ही काली है।

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